चिकित्सा में नस्लवाद? [Is There Racism in Medicine?] | DW Documentary हिन्दी
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 Published On Mar 4, 2024

जर्मनी में एक चौथाई से ज़्यादा आबादी प्रवासी मूल की है. बहुत से लोगों का कहना है कि अस्पतालों और क्लीनिकों में डॉक्टरों ने उनका सही इलाज़ नहीं किया. क्या हेल्थ केयर सिस्टम में नस्लवाद समाया हुआ है?

यह डॉक्यूमेंट्री उन सभी लोगों के अनुभव पर आधारित है, जिन्हें मेडिकल इमरजेंसी के दौरान सही इलाज़ नहीं मिला या लौटा दिया गया, ऐसी मिडवाइफ, जिन्हें डिलीवरी रूम में नस्लवाद झेलना पड़ा, या वो छात्र, जो नस्लीय आधार पर पढ़ाई की आलोचना करते हैं, और कुछ हद तक वो डॉक्टर्स भी, जो इन समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं.

यह फिल्म दिखाती है कि जाने-अनजाने में हेल्थकेयर सिस्टम में होने वाला नस्लवाद कितना घातक हो सकता है. यह निष्कर्ष, जर्मनी में इस मुद्दे पर नवम्बर 2023 में, “जर्मन सेंटर फॉर इंटीग्रेशन एंड माइग्रेशन रिसर्च” के पहले अध्ययन पर आधारित है.

सच्चाई यह है कि आज भी “मोरबस मेडिटेरेनियस” जैसे शब्द हेल्थ केयर सेक्टर में प्रचलित हैं. इसका मतलब होता है - किसी ख़ास समुदाय के लोगों का अपने दर्द को बढ़ा-चढ़ाकर बताना. आधुनिक चिकित्सा उपकरण भी कभी कभी काली त्वचा वाले लोगों पर सही से काम नहीं करते, और कई डॉक्टरों को तो बिलकुल पता नहीं होता कि कुछ बीमारियों के लक्षण काली और गोरी त्वचा के लोगों में अलग अलग हो सकते हैं. मेडिकल के नियम कायदे यहां तक कि टेक्स्टबुक्स में भी, श्वेत लोगों, पश्चिमी यूरोपीय मरीजों के हिसाब से बनाये गए हैं. इससे बीमारी को पहचानने में गलती हो सकती है और बीमारी बिगड़ सकती है.

लोअर सैक्सोनी में रेम्ज़िये टी का ही मामले लीजिए. उनके संक्रमित हार्ट वाल्व का लम्बे समय तक पता ही नहीं चला, क्योंकि डॉक्टरों ने उनके दर्द को गंभीरता से नहीं लिया. जब इस समस्या की सही से पहचान की गई, तब तक मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए काफी देर हो चुकी थी. अब रेम्ज़िये टी को एक मैकेनिकल हार्ट वाल्व के साथ जीवन गुज़ारना पड़ रहा है. ऑपरेशन की वजह से वह ठीक से चलने-फिरने के काबिल नहीं रहीं और अब वह काम भी नहीं कर सकती हैं.

डॉक्टर बिस्मार्क ओफ़ोरी ने कैमरा टीम को अपने हनोवर सर्जरी में फिल्माने दिया. इस ब्लैक डॉक्टर के ज़्यादातर मरीज़ प्रवासी हैं. वे उन्हें बताते हैं कि उन्हें अन्य जगहों पर गंभीरता से नहीं लिया जाता. कइयों को तो बेरहमी से भगा दिया गया. डॉक्टर ओफ़ोरी के ट्रीटमेंट रूम में ये साफ़ दिखता है कि भाषाई बाधा के कारण समय और पैसे, दोनों ही ज़्यादा खर्च हो रहे हैं. वैसे, बीमारी की सही पहचान में सिर्फ़ भाषा ही अकेली बाधा नहीं है. पल्स ऑक्सीमीटर को ही ले लीजिए, जो खून में ऑक्सीजन की मात्रा नापता है. यह उपकरण काली त्वचा पर ठीक से काम नहीं करता. लेकिन इस बात को मेडिकल स्कूलों में सही से पढ़ाया नहीं जाता.

नस्लवाद और इसके प्रभाव की जानकारी के बारे में हेल्थ केयर सिस्टम में सिर्फ़ एक शुरुआत हो रही है. लेकिन बहुत से - डॉक्टरों, मेडिकल स्टूडेंट, मिडवाइफ और चिकित्सा इतिहासकार ने इस समस्या पर मुखरता से बात रखी है, जो कई बार जानलेवा साबित हो सकती है.

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